Monday, 21 March 2016

अनगढ़े शब्द |

किसी ने कहा "लिखा करो |" - सुझाव अच्छा था पर लिखे क्या यह भी एक जटिल प्रश्न है | पिछले एक घंटे से सोच रहा हूँ किस बिंदु पर लिखा जाय, कुछ सूझता नहीं | मस्तिष्क में अनेक विचार ज्वार भाटे की भाँती हर पल उफान लेते हैं पर शब्दों का रूप लेने के पहले ही लेख रूपी चट्टान से टकराकर चूर हो जाते हैं | खैर प्रयास तो करना ही होगा, अतः श्री गणेशाय !!

सोचता हूँ की शुरुवात करने के लिए क्यूँ न विभिन्न बिन्दुओं की मदद ले कर कुछ लिखूँ |


१) लेख से डर क्यूँ ?

लेख विचारों को वास्तविकता की धरातल पर लाकर एक मूर्त रूप प्रदान कर देते हैं, कुछ वैसे ही जैसे विचार जब तक व्यक्ति के मन के भीतर होते हैं अनगढ़ एवम बिखरे हुए होते हैं पर शब्दों के रूप में मुख से बाहर आते ही एक वास्तविकता हो जाते हैं | हाँ परन्तु लेख व वाणी में महत्वपूर्ण अंतर यह है की लेख सदा के लिए पाठक के समक्ष लेखक के विचारो के माध्यम से स्वयं लेखक को प्रस्तुत करते है जिसे की समय-काल में हमेशां के लिए उत्तरदायी होना होगा,  जबकि मोखिक शब्द केवल श्रोता तक सिमित रहेंगे |

अतः मै यहाँ पर ही यह विनती करना चाहूँगा की मेरे शब्द/विचार मेरे वर्त्तमान की मनोदशा की उपज है जो कि सर्वोतम एवम सर्वथा उपयुक्त होने के घोतक नहीं माने जाने चाहिए |


२ ) बड़ो  से दूरी

न जाने क्यूँ मुझे सदा ही ज्यादा बड़ो से एक अजब सी हिचक रहती है | मन के किसी कोने में हमेशा पीछे से कोई कहता रहता है - सावधान रहना, थोड़ी दूरी जरुरी है | सही शब्द शायद नहीं मिल रहे या यह भी हो सकता है की ऐसे शब्द ही न हो जिनमे अपनी भावनाओ का यथार्थ वर्णन कर सकूँ |

ऐसा कदापि नहीं है की केवल उनके भय के कारण ऐसा होता हो | यहाँ यह भी कहना चाहूँगा की हर व्यक्ति में थोडा डर जरुर होता है जब वह अपने से ज्यादा बड़े, ज्यादा ताकतवर या अति प्रभावशाली व्यक्ति से मिलता है, वह माने या न माने |

ऐसा भी नहीं है की केवल उनके प्रभाव के कारण दूरी बनाना उचित लगता है क्यूँकि प्रथमतया: तो यह जरुरी नहीं की मैं उनके प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत आता होऊं और दूसरा की अगर मैं उनके प्रभाव के क्षेत्र के अंतर्गत भी होऊं तो बहुत हद तक संभव है की मैं अपनी जगह सही हूँ और जो सही है वो प्रभाव के असर से बहुत हद तक स्वतंत्र है |

शायद कहीं न कहीं बड़े लोगो की छोटे लोगों से स्वयं बनायीं हुई दूरी, उनकी वो झूठी दीवार जो की तमगों से पटी हुई होती है व उनकी वो शैली जिसमे वो यह दिखाने से बाज नहीं आते है की वो ताकतवर है एवम सामने वाले को जब चाहे रोंदते हुए जा सकते है जैसे भाव मेरे इस विचार के करक हों | यह कहना अधिक उपयुक्त  लग रहा है की वो बड़प्पन जिसमे वो बड़ा स्वयं को दुसरो से बड़ा समझता हो — के भाव ही मेरे मन को उनसे दूरी ही उचित बताने को निर्दिष्ट करते हैं |

मेरे अन्दर का आदमी सामान्य लोगो की तरफ ज्यादा आकर्षित होता है | बिना किसी अभिनय अथवा प्रलोभन के किसी भी व्यक्ति का कोई कृत्य अगर ध्यान से देखा जाए तो एक अलग ही तरह का अनुभव देता है | यह शायद दु:खद ही है की सामान्यतः बड़े लोग बड़े होते-होते हर क्रिया का मोल देखने के इतने आदि हो चुके होते है की उनसे बिन कारण कोई कार्य अथवा प्रतिक्रिया अशंभव हो चुकी होती है | अभिनय व पर्दों की इतनी आदत हो चुकी होती है की वास्तविक व्यक्ति अन्दर कही खो चूका होता है |

यहाँ यह भी कहना चाहूँगा की बड़ा व्यक्ति गलत है - ऐसा भी नहीं है, आखिर उनके पास भी सीमित वक्त है |परन्तु  क्या मेरा वक़्त सीमित नहीं है ?

अब तक के जीवन की सीख भी न जाने क्यू यह ही रही है की छोटो का दिल ज्यादा बड़ा होता है | यह जरुर हो सकता है की मै अच्छे बड़े व्यक्ति से मिला ही न हूँ |


३) अनिश्चित्तता ..?

मै पहले ही कहना चाहूँगा की यह सोच अभी अपने प्रथम सोपान पर है एवम मै स्वयं भी महसूस करता हूँ इसमें अभी और मंथन की आवश्यकता है | अनुभव के सही पुट से आगे चल कर एक बिंदु पर जरुर पहुंचूंगा परन्तु अभी के लिए तो यही है :-

क्या निश्चितता सर्वदा सही है?
क्या एक व्यक्ति का यह कहना सत्य हो सकता है की — वह सही है या और कठिन शब्दों में — वह ही सही है ?

सच कहूँ तो बड़ा ही आश्चर्य होता है की क्याँ व्यक्ति है जो कि विषय विशेष के बारे में इतना ज्ञान रखता है कि दावे के साथ कह रहा हो की क्याँ सही और क्या गलत है |  यह भी सच है की कभी-कभी तो खीझ भी आती है स्वयं के सिमित ज्ञान पर और इस बात पर भी की क्यूँ  मै दोनों पक्षों के बारे में सोचने लगता हूँ | क्यूँ नहीं मै भी एक पक्ष को पूर्णतया गलत व दुसरे को पूर्णतया सही ठहरा पाता हूँ |

पर जब भी मैंने शांत अंतर्मन में उतरकर सोचा है तो यही पाया है की निश्चयवाद उतना भी सही नहीं है जितना कि यह जग उससे ठहराता है क्यूँ कि कोई व्यक्ति कितना भी विद्वान् क्यूँ न हो, वह किसी भी घटना को प्रभावित करने वाले सभी कारको का सही सही आकलन कर ले यह संभव नहीं | सत्यता में वह केवल ज्यादा अथवा कम संभावित की ही घोषणा कर सकेगा जिसे की सामन्यतः निर्णय माना जाता है |

सुधार का कोण हमेशा रहेगा यद्यपि आप माने या न माने |

हाँ, अगर कोई पूछे की दिन-प्रतिदिन की नित्य क्रिया कलापों मैं ज्यादा सोच-विचार न कर के हर क्षण एक निर्णय लिया जाता है व खुद को सही माने बिना आप कैसे कार्य को आगे बढ़ाएंगे तो प्रथमतया: तो यह की जैसी समस्या वैसा समाधान | अगर निर्णय छोटा है तो जटिलताये भी तो छोटी ही होंगी, क्यूँ? पर क्या जो रोज व हमेशा से होता आया है उसमे सुधार की गुंजाइश नहीं होती है या यह कहूँ की जो होता आया है वह ही सही है यह कैसा सत्य है ? अब बड़े निर्णयों की बात की जाए जिनमे की विद्वान् व बुद्धिजीवी बहुत विचार कर के ही निश्चय पर पहुचते होंगे पर मेरा प्रश्न निश्चय का नहीं वरन अनिश्चय का है | क्या आप इतने निश्चित हो सकते है की अनिश्चय की गुंजाइश ही न हो ? आप निर्णय ले, जरुर ले पर कभी भी अपने निर्णय को इतना सही न घोषित करें या समझे की उसपर प्रश्न उठाना आपको आस्वभाविक/नागवार लगे |

मनुष्य ने बड़ा सोच विचार कर एक भगवान् की कल्पना की है पर याद रहे की प्रश्न तो लोग भगवान् पर भी उठाते है | और यह तब है जब मनुष्य का भगवान काल्पनिक है - उसे जिसने जैसे चाहा है वैसे परिभाषित किया है, कर सकता है |

आपका निर्णय आपके विषय वस्तु के ज्ञान व समझ पर आधारित होते है जो की उन सभी परिस्थितियों व समस्याओ की कल्पना, गणना कर के लिया जाता है जो उसके चहुऔर हो सकती है | पर क्या होगा जब आप से बड़ी या इतर कल्पना शक्ति का व्यक्ति उसी विषय पर मंथन कर रहा हो | क्या यह उचित होगा की आप उससे भी अपने ही परिणाम के प्राप्ति की कल्पना करे एवम् ऐसा न होने की दशा में अपने को सही घोषित करते हुए लड़-झगड़ पड़े ?

शायद जैसा की विज्ञान कहता है वैसा ही दर्शन जीवन में भी लागू होना चाहिए - "एक तथ्य को केवल सतत परीक्षणों के बल पर आधारित करें और उसे भी तभी तक मान्य करें जब तक कि उससे अलग कुछ और न प्रमाणित हो जाए |" आप का निर्णय आपके आज की समझ के अनुरूप है, गलत साबित होने की गुँजाइश रखे क्यूँ की यह भी हो सकता है की कल आप ही अपने निर्णय को पलट रहे हो |

क्या मै अनिश्चय के प्रति ज्यादा निश्चयवाद का प्रयोग नहीं रख रहा ? शायद हाँ, शायद ना !!

— अबोध दार्शनिक
      [ दार्शनिक लोग व्यक्तिगत जीवन में ज्यादातर असफल ही होते है और फिर अबोध दार्शनिक? :) ]